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इ॒मं म॒हे वि॑द॒थ्या॑य शू॒षं शश्व॒त्कृत्व॒ ईड्या॑य॒ प्र ज॑भ्रुः। शृ॒णोतु॑ नो॒ दम्ये॑भि॒रनी॑कैः शृ॒णोत्व॒ग्निर्दि॒व्यैरज॑स्रः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imam mahe vidathyāya śūṣaṁ śaśvat kṛtva īḍyāya pra jabhruḥ | śṛṇotu no damyebhir anīkaiḥ śṛṇotv agnir divyair ajasraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒मम्। म॒हे। वि॒द॒थ्या॑य। शू॒षम्। शश्व॑त्। कृत्वः॑। ईड्या॑य। प्र। ज॒भ्रुः॒। शृ॒णोतु॑। नः॒। दम्ये॑भिः। अनी॑कैः। शृ॒णोतु॑। अ॒ग्निः। दि॒व्यैः। अज॑स्रः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:54» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:24» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब बाईस ऋचावाले चौवनवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में राजा के विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (कृत्वः) बहुत कार्य करनेवाले ! जिसके वह आप (महे) बड़े (ईड्याय) स्तुति करने के योग्य (विदथ्याय) संग्राम में उत्पन्न हुए के लिये (इमम्) इस (शश्वत्) निरन्तर (शूषम्) बलको (प्र, जभ्रुः) अच्छे प्रकार धारण करते हैं उन (नः) हम लोगों को आप (दम्येभिः) देने के योग्य (अनीकैः) सेना में वर्त्तमान जनों के साथ (शृणोतु) सुनिये (अजस्रः) निरन्तर वर्त्तमान (अग्निः) विद्वान् आप (दिव्यैः) श्रेष्ठ कर्मों के साथ हम लोगों का (शृणोतु) श्रवण करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो लोग युद्ध के लिये पूर्ण विद्या और बड़े बल को धारण करें, उनको राजजन सुन के निरन्तर सत्कार करें और उनके कृत्य की निरन्तर उन्नति करें, जिससे कि प्रसन्न हुए वे विजय से राजा को सदा शोभित करें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजविषयमाह।

अन्वय:

हे कृत्वो भवान्महे ईड्याय विदथ्यायेमं शश्वच्छूषं प्र जभ्रुः तान्नोऽस्मान्भवान् दम्येभिरनीकैः सह शृणोतु। अजस्रोऽग्निर्भवान् दिव्यैः कर्मभिः सहाऽस्माञ्छृणोतु ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इमम्) (महे) महते (विदथ्याय) विदथेषु सङ्ग्रामेषु भवाय (शूषम्) बलम् (शश्वत्) निरन्तरम् (कृत्वः) बहवः कर्त्तारो विद्यन्ते यस्य तत्सम्बुद्धौ (ईड्याय) स्तोतुमर्हाय (प्र) (जभ्रुः) धरन्तु शृणोतु (नः) अस्माकम् (दम्येभिः) दातुं योग्यैः (अनीकैः) सैन्यैः (शृणोतु) (अग्निः) विद्वान् (दिव्यैः) (अजस्रः) निरन्तरः ॥१॥
भावार्थभाषाः - ये युद्धाय पूर्णां विद्यां महद्बलं धरेयुस्तान् राजानः श्रुत्वा सततं सत्कुर्युस्तत् कृत्यं सततमुन्नयेयुर्यतो हृष्टाः सन्तस्ते विजयेन राजानं सदाऽलङ्कुर्युः ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात राजा, विद्वान, प्रजा, अध्यापक, शिष्य, ईश्वर, श्रोता, वक्ता व शूरवीराचे कर्म इत्यादी गुण वर्णन केल्याने या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जे लोक युद्धासाठी पूर्ण विद्या व प्रचंड बळ धारण करतात त्यांचा राजजनांनी निरंतर सत्कार करावा. त्यांच्या कृत्याची सतत वाढ करावी. ज्यामुळे ते प्रसन्न होऊन विजय मिळवून राजाला सुशोभित करतात. ॥ १ ॥